“अगर तुम लड़की हो, तो क्रिकेट क्यों खेल रही हो?”
और यहीं से शुरू होती है भारत में महिला क्रिकेट की कहानी।
1973 में लखनऊ में बनी "Women’s Cricket Association of India (WCAI)" ने इस सपने को हकीकत की पहली सीढ़ी दी। वो दौर ऐसा था जब स्टेडियम नहीं, मोहल्लों की गलियां थीं। न कोच थे, न किट, लेकिन जुनून इतना था कि उस के सामने सब चुनौतिया छोटी हो गई ।
टीम के पास ब्रांडेड जर्सी नहीं थी, लेकिन आंखों में सपना था - “एक दिन हम भी टीवी पर आएंगे।” 1976 में वेस्टइंडीज के खिलाफ पहला टेस्ट - बेंगलुरु का मैदान और इतिहास रचने का मौका। वो सिर्फ ड्रॉ नहीं था, वो इज्जत की बराबरी थी। 1978 में ODI खेलने वाली भारत की महिला टीम ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
80 के दशक में लड़कियों को मैदान पर जाते देख लोग कहते थे,
“किचन छोड़कर क्रिकेट क्यों?”
जवाब में वो बेटियां कहती थीं - “किचन में भी जीतना आता है, मैदान में भी।”
संसाधन नहीं थे। ट्रेनों में जनरल कोच में सफर, रात भर जाग कर मैच के लिए तैयारी, जूते एक ही जोड़ी - फिर भी कोई शिकायत नहीं।
पूर्व क्रिकेटर कथकली बनर्जी कहती हैं - “हमने मैदान में रिकॉर्ड नहीं, आदतें बदलीं।”
जब लड़कियों को कोचिंग नहीं मिली, तब शैफाली वर्मा जैसे बच्चों ने बाल काट लिए, ताकि लड़कों के साथ प्रैक्टिस कर सकें।
ये सवाल कई बार भारत की बेटियों को सुनना पड़ा, लेकिन जवाब में उन्होंने बल्ला उठाया और कहानियां लिख दीं - इतिहास में, दिलों में और उस मैदान पर, जहां कभी उनका स्वागत नहीं था।
यह कहानी सिर्फ क्रिकेट की नहीं है - यह कहानी है सपनों की, संघर्ष की और उस जुनून की जिसने भारत की बेटियों को बाउंड्री के पार भेजा।
यह कहानी सिर्फ क्रिकेट की नहीं है - यह कहानी है सपनों की, संघर्ष की और उस जुनून की जिसने भारत की बेटियों को बाउंड्री के पार भेजा।
1970 के दशक की एक गली
एक साधारण सी लड़की - साड़ी में, हाथ में किताबें - स्कूल जाती हुई। लेकिन जब गली में लड़के क्रिकेट खेलते हैं, तो उसका मन बल्ले की ओर खिंच जाता है। घर से मना है - "लड़कियां क्रिकेट नहीं खेलतीं", लेकिन दिल नहीं मानता।और यहीं से शुरू होती है भारत में महिला क्रिकेट की कहानी।
1973 में लखनऊ में बनी "Women’s Cricket Association of India (WCAI)" ने इस सपने को हकीकत की पहली सीढ़ी दी। वो दौर ऐसा था जब स्टेडियम नहीं, मोहल्लों की गलियां थीं। न कोच थे, न किट, लेकिन जुनून इतना था कि उस के सामने सब चुनौतिया छोटी हो गई ।
पहले मैच का रोमांच
1975 - भारत में पहला इंटरनेशनल महिला टेस्ट मैच। ऑस्ट्रेलिया की अंडर-25 टीम भारत आई। तीन कप्तान - उज्वला निकम, सुधा शाह और श्रीरूपा बोस - तीन शहरों में टीम की अगुवाई कर रही थीं।टीम के पास ब्रांडेड जर्सी नहीं थी, लेकिन आंखों में सपना था - “एक दिन हम भी टीवी पर आएंगे।” 1976 में वेस्टइंडीज के खिलाफ पहला टेस्ट - बेंगलुरु का मैदान और इतिहास रचने का मौका। वो सिर्फ ड्रॉ नहीं था, वो इज्जत की बराबरी थी। 1978 में ODI खेलने वाली भारत की महिला टीम ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
चुनौतियां - हर कदम पर सवाल
“किचन छोड़कर क्रिकेट क्यों?”
जवाब में वो बेटियां कहती थीं - “किचन में भी जीतना आता है, मैदान में भी।”
संसाधन नहीं थे। ट्रेनों में जनरल कोच में सफर, रात भर जाग कर मैच के लिए तैयारी, जूते एक ही जोड़ी - फिर भी कोई शिकायत नहीं।
पूर्व क्रिकेटर कथकली बनर्जी कहती हैं - “हमने मैदान में रिकॉर्ड नहीं, आदतें बदलीं।”
जब लड़कियों को कोचिंग नहीं मिली, तब शैफाली वर्मा जैसे बच्चों ने बाल काट लिए, ताकि लड़कों के साथ प्रैक्टिस कर सकें।
स्टार बनने का सपना — पहली हीरोइन
शांता रंगास्वामी - भारतीय महिला क्रिकेट की पहली सुपरस्टार।
1976 में शतक मारकर इतिहास रचा। फिर आईं डायना एडुल्जी, संध्या अग्रवाल, नीतू डेविड - इन्होंने बल्ले और गेंद से ही नहीं, बल्कि समाज की सोच को भी बदल दिया।
संध्या ने 1986 में 190 रन बनाकर दुनिया को दिखाया - बेटियां भी लंबे इनिंग खेल सकती हैं।
अब खिलाड़ियों को ट्रेनिंग मिली, स्टेडियम मिले, मैच फीस मिली।
और इसी के साथ आई असली उड़ान।
2005 - भारत वर्ल्ड कप फाइनल में।
2017 - इंग्लैंड के खिलाफ फाइनल, 9 रन से हार, लेकिन पूरे भारत का दिल जीत लिया।
2020 - टी20 वर्ल्ड कप फाइनल - पूरा स्टेडियम खचाखच भरा था, जैसे कोई ब्लॉकबस्टर फिल्म की स्क्रीनिंग हो।
ये वो स्टेज था, जिसका हर खिलाड़ी सपना देखती थी।
अब वो विदेशी खिलाड़ी भी आईं, जो मिताली और स्मृति की फैन थीं।
भीड़ ने नारे लगाए - “भारत की बेटियों को सलाम!”
हर मुकाबले में शॉट्स, छक्के, विकेट - और सबसे बड़ी बात - RESPECT मिला।
अब कोई नहीं कहता, “अरे ये तो लड़कियों का मैच है।”
अब कहते हैं - “क्या ज़बरदस्त गेम था!”
अब पुरुष और महिला क्रिकेटर्स को एक जैसी मैच फीस मिलेगी।
ये कदम सिर्फ आर्थिक नहीं, मानसिक समानता का प्रतीक है।
एक लड़की अब निश्चिंत होकर कह सकती है - “क्रिकेट मेरा करियर है।”
हर स्टेडियम में पोस्टर होंगे - “बेटी की बैटिंग से डर लगता है?”
हर टीवी चैनल बोलेगा - “देखो ये असली सुपरवुमन हैं।”
अंडर-19 टीम ने 2023 में T20 वर्ल्ड कप जीतकर दिखा दिया - "Future is Female."
जिन्होंने पिताजी के स्कूटर पर बैठकर नेट्स तक का सफर किया, जिन्होंने मां से चुपके बैग में स्पोर्ट्स शूज़ छिपाए।
आज महिला क्रिकेट सिर्फ खेल नहीं, महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और आत्मगौरव का प्रतीक बन चुका है।
अगर कोई पूछे - “क्रिकेट ने महिलाओं को क्या दिया?”
तो जवाब होगा - “क्रिकेट ने बेटियों को सपने दिए, पहचान दी, और वो आवाज़ दी जो पहले सिर्फ चुप्पियों में थी।”
1976 में शतक मारकर इतिहास रचा। फिर आईं डायना एडुल्जी, संध्या अग्रवाल, नीतू डेविड - इन्होंने बल्ले और गेंद से ही नहीं, बल्कि समाज की सोच को भी बदल दिया।
संध्या ने 1986 में 190 रन बनाकर दुनिया को दिखाया - बेटियां भी लंबे इनिंग खेल सकती हैं।
BCCI का आना - क्रिकेट की नई सुबह
2006 में BCCI ने महिला क्रिकेट को अपनाया। एकदम फिल्मी पल - जैसे कोई शक्तिशाली मेंटर कहता है, “अब तुम मेरी टीम की हिस्सा हो।”अब खिलाड़ियों को ट्रेनिंग मिली, स्टेडियम मिले, मैच फीस मिली।
और इसी के साथ आई असली उड़ान।
2005 - भारत वर्ल्ड कप फाइनल में।
2017 - इंग्लैंड के खिलाफ फाइनल, 9 रन से हार, लेकिन पूरे भारत का दिल जीत लिया।
2020 - टी20 वर्ल्ड कप फाइनल - पूरा स्टेडियम खचाखच भरा था, जैसे कोई ब्लॉकबस्टर फिल्म की स्क्रीनिंग हो।
WPL — महिला IPL का जन्म
2023 में WPL यानी Women’s Premier League शुरू हुआ।ये वो स्टेज था, जिसका हर खिलाड़ी सपना देखती थी।
अब वो विदेशी खिलाड़ी भी आईं, जो मिताली और स्मृति की फैन थीं।
भीड़ ने नारे लगाए - “भारत की बेटियों को सलाम!”
हर मुकाबले में शॉट्स, छक्के, विकेट - और सबसे बड़ी बात - RESPECT मिला।
अब कोई नहीं कहता, “अरे ये तो लड़कियों का मैच है।”
अब कहते हैं - “क्या ज़बरदस्त गेम था!”
नायिकाएं जिन्होंने चमकाया आसमान
- मिताली राज - 8000+ रन, महिला क्रिकेट की सचिन तेंदुलकर।
- झूलन गोस्वामी - स्विंग क्वीन, तेज गेंदबाजी की मिसाल।
- हरमनप्रीत कौर - 2017 वर्ल्ड कप सेमीफाइनल में 171* रन - वो इनिंग अब भी लोगों के रोंगटे खड़े कर देती है।
- स्मृति मंधाना - स्टाइल और स्ट्रोक्स की रानी।
- शैफाली वर्मा - सिर्फ 18 साल में T20 में 1000 रन पूरे करने वाली सबसे कम उम्र की खिलाड़ी।
2022 का धमाका — समान वेतन नीति
BCCI ने बड़ा ऐलान किया -अब पुरुष और महिला क्रिकेटर्स को एक जैसी मैच फीस मिलेगी।
ये कदम सिर्फ आर्थिक नहीं, मानसिक समानता का प्रतीक है।
एक लड़की अब निश्चिंत होकर कह सकती है - “क्रिकेट मेरा करियर है।”
गोल्डन एंडिंग की तैयारी
2025 में भारत महिला वर्ल्ड कप होस्ट करेगा।हर स्टेडियम में पोस्टर होंगे - “बेटी की बैटिंग से डर लगता है?”
हर टीवी चैनल बोलेगा - “देखो ये असली सुपरवुमन हैं।”
अंडर-19 टीम ने 2023 में T20 वर्ल्ड कप जीतकर दिखा दिया - "Future is Female."
ये सिर्फ क्रिकेट नहीं, आंदोलन है
यह कहानी सिर्फ मिताली या हरमनप्रीत की नहीं है। यह कहानी है लाखों लड़कियों की, जो अपने गली के नुक्कड़ से निकलकर मैदान तक पहुंची हैं।जिन्होंने पिताजी के स्कूटर पर बैठकर नेट्स तक का सफर किया, जिन्होंने मां से चुपके बैग में स्पोर्ट्स शूज़ छिपाए।
आज महिला क्रिकेट सिर्फ खेल नहीं, महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और आत्मगौरव का प्रतीक बन चुका है।
अगर कोई पूछे - “क्रिकेट ने महिलाओं को क्या दिया?”
तो जवाब होगा - “क्रिकेट ने बेटियों को सपने दिए, पहचान दी, और वो आवाज़ दी जो पहले सिर्फ चुप्पियों में थी।”