कभी किसी ने कहा था - "भारत में दो ही धर्म चलते हैं, एक क्रिकेट और दूसरा कभी हॉकी था।"आज हम बात कर रहे हैं उसी हॉकी की, जिसने कभी भारत को ओलंपिक में राजा बना दिया था, और फिर वक्त के थपेड़ों में गुम हो गई। लेकिन कहानी वहीं नहीं खत्म होती... असली कहानी तो वहाँ से शुरू होती है जहाँ हार के बाद भी उम्मीदें जिंदा रहीं।
साल था 1928। दुनिया ओलंपिक खेल रही थी, और भारत पहली बार हॉकी टीम लेकर एम्स्टर्डम पहुँचा। मैदान में एक दुबला-पतला सा खिलाड़ी था - ध्यानचंद। जब उसने गेंद को पकड़ा तो ऐसा लगा जैसे वो स्टिक नहीं, कोई जादू की छड़ी हो। भारत ने गोल पे गोल मारे और सीधे स्वर्ण पदक अपने नाम कर लिया।
उसके बाद तो जैसे ये खेल हमारे DNA में बस गया। 1932, 1936, 1948, 1952, 1956… हर बार गोल्ड। ध्यानचंद, बलबीर सिंह, केडी सिंह बाबू - ये नाम घर-घर के पोस्टर बन गए।
लोग कहते थे, "मैदान में जब भारत खेलता है, तो दूसरे देश बस खड़े होकर तालियाँ बजाते हैं।"
जब भारत ने हॉकी में ब्रिटेन को हराया और गोल्ड लिया, तो आँसू सिर्फ खुशी के नहीं थे, वो आज़ादी का इमोशन था। उस दिन सबने कहा, “अब हम सच में आज़ाद हैं।”
स्टेडियम खाली होने लगे। खिलाड़ी मेहनत करते रहे, लेकिन उनके लिए न तो सुविधाएं थीं, न ही पहचान। हॉकी अब सिर्फ पुराने किस्सों में रह गई।
एक खिलाड़ी ने एक बार कहा था -
"हम खेलते हैं देश के लिए, पर टीवी पर हमारा मैच तक नहीं आता।"
महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल की कहानी देखिए – पिता रिक्शा चलाते थे। घर में लाइट नहीं थी, और वह ट्यूब लाइट के नीचे स्टेडियम के बाहर बैठकर पढ़ाई करती थी और प्रैक्टिस करती थी।
एक और कहानी - मनप्रीत सिंह की माँ ने अपने गहने बेचकर उनके लिए हॉकी स्टिक खरीदी।
ये सब सिर्फ खिलाड़ी नहीं थे - ये लोग सपने को जिंदा रखने वाले योद्धा थे।
और महिला टीम? भले ही पदक नहीं जीती, लेकिन जो हौसला उन्होंने दिखाया, वो पूरे देश को प्रेरणा दे गया। सेमीफाइनल तक पहुँचना - वो भी ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम को हराकर - कोई छोटी बात नहीं थी।
एक कोच - हरेंद्र सिंह - ने महिला टीम को जीरो से हीरो बनाया। एक टीम, जो कभी कहीं गिनी नहीं जाती थी, उसने कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियाड और फिर ओलंपिक में दिखाया कि भारत की बेटियाँ क्या कर सकती हैं।
नए टर्फ, साइंटिफिक ट्रेनिंग, और फिटनेस पर काम किया जा रहा है। भारत की टीमें अब सिर्फ एशिया में नहीं, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जैसी टीमों को टक्कर दे रही हैं।
हॉकी ने क्या बदला?
गाँव के बच्चे अब कहते हैं - “क्रिकेट नहीं, मैं हॉकी खेलूँगा।”
बेटियाँ कहती हैं - “मैं भी रानी रामपाल बनूँगी।”
और देश को याद आने लगा है वो गर्व, जो गोल्ड मेडल लाने पर मिलता है।
भारत की हॉकी की कहानी एक फिल्म की तरह है - जिसमें उतार-चढ़ाव, ड्रामा, आँसू, तालियाँ और अंत में जीत होती है। अभी हम इंटरवल के बाद की कहानी में हैं - जहाँ वापसी शुरू हो चुकी है।
कौन जानता है, अगला गोल्ड कब आएगा?
लेकिन एक बात तय है - ये खेल अब कभी अकेला नहीं रहेगा। देश अब फिर से हॉकी के साथ खड़ा है। जय हिन्द - जय भारत
वो सुनहरा दौर: जब हॉकी मतलब इंडिया था
साल था 1928। दुनिया ओलंपिक खेल रही थी, और भारत पहली बार हॉकी टीम लेकर एम्स्टर्डम पहुँचा। मैदान में एक दुबला-पतला सा खिलाड़ी था - ध्यानचंद। जब उसने गेंद को पकड़ा तो ऐसा लगा जैसे वो स्टिक नहीं, कोई जादू की छड़ी हो। भारत ने गोल पे गोल मारे और सीधे स्वर्ण पदक अपने नाम कर लिया।उसके बाद तो जैसे ये खेल हमारे DNA में बस गया। 1932, 1936, 1948, 1952, 1956… हर बार गोल्ड। ध्यानचंद, बलबीर सिंह, केडी सिंह बाबू - ये नाम घर-घर के पोस्टर बन गए।
लोग कहते थे, "मैदान में जब भारत खेलता है, तो दूसरे देश बस खड़े होकर तालियाँ बजाते हैं।"
स्वतंत्रता के बाद पहली जीत - ब्रिटेन को हराना मतलब इमोशन
1948 का ओलंपिक – ये सिर्फ एक खेल नहीं था। ये आज़ाद भारत की पहली पहचान थी। और विरोधी टीम थी ब्रिटेन - वही जिसने हमें 200 साल गुलाम बनाया।जब भारत ने हॉकी में ब्रिटेन को हराया और गोल्ड लिया, तो आँसू सिर्फ खुशी के नहीं थे, वो आज़ादी का इमोशन था। उस दिन सबने कहा, “अब हम सच में आज़ाद हैं।”
धीरे-धीरे आई गिरावट - जब खेल हाशिए पर चला गया
लेकिन फिर वक्त बदला। 1980 के बाद हॉकी में वो चमक फीकी पड़ने लगी। टेक्नोलॉजी नहीं थी, स्पॉन्सर नहीं थे, और न ही ग्लैमर। उधर क्रिकेट स्टार बन रहा था - कपिल देव, सचिन, धोनी… और इधर हॉकी को भुला दिया गया।स्टेडियम खाली होने लगे। खिलाड़ी मेहनत करते रहे, लेकिन उनके लिए न तो सुविधाएं थीं, न ही पहचान। हॉकी अब सिर्फ पुराने किस्सों में रह गई।
एक खिलाड़ी ने एक बार कहा था -
"हम खेलते हैं देश के लिए, पर टीवी पर हमारा मैच तक नहीं आता।"
2000 के बाद संघर्ष की कहानी – मैदान में नहीं, मन में लड़ाई
हॉकी के खिलाड़ी ट्रेन से सफर करते थे, किट्स खुद खरीदते थे, और रात को जब बाकी देश सोता था, तब ये पसीना बहाते थे। मैदान में खेलने से पहले इन्हें ज़िंदगी से लड़ना पड़ता था।महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल की कहानी देखिए – पिता रिक्शा चलाते थे। घर में लाइट नहीं थी, और वह ट्यूब लाइट के नीचे स्टेडियम के बाहर बैठकर पढ़ाई करती थी और प्रैक्टिस करती थी।
एक और कहानी - मनप्रीत सिंह की माँ ने अपने गहने बेचकर उनके लिए हॉकी स्टिक खरीदी।
ये सब सिर्फ खिलाड़ी नहीं थे - ये लोग सपने को जिंदा रखने वाले योद्धा थे।
2021 टोक्यो ओलंपिक - जब भारत ने फिर से दुनिया को बताया, "हॉकी इज़ बैक!"
41 साल बाद, 2021 के टोक्यो ओलंपिक में जब भारत की पुरुष हॉकी टीम ने कांस्य पदक जीता, तो पूरा देश रो पड़ा। ये खुशी थी उस इंतज़ार की जो 1980 के बाद हर साल दिल में चुभती थी।और महिला टीम? भले ही पदक नहीं जीती, लेकिन जो हौसला उन्होंने दिखाया, वो पूरे देश को प्रेरणा दे गया। सेमीफाइनल तक पहुँचना - वो भी ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम को हराकर - कोई छोटी बात नहीं थी।
“चक दे इंडिया” सिर्फ फिल्म नहीं, हकीकत थी!
शाहरुख खान की फिल्म चक दे इंडिया जब आई थी, तो सबने उसे एक फिल्म समझा। पर असली जिंदगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ।एक कोच - हरेंद्र सिंह - ने महिला टीम को जीरो से हीरो बनाया। एक टीम, जो कभी कहीं गिनी नहीं जाती थी, उसने कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियाड और फिर ओलंपिक में दिखाया कि भारत की बेटियाँ क्या कर सकती हैं।
आज का समय - फिर से चमकने की उम्मीद
अब सरकार और देश दोनों जाग चुके हैं। “खेलो इंडिया”, “TOPS स्कीम”, “ओलंपिक मिशन” जैसे प्रोग्राम से हॉकी को फिर से नई उड़ान मिल रही है।नए टर्फ, साइंटिफिक ट्रेनिंग, और फिटनेस पर काम किया जा रहा है। भारत की टीमें अब सिर्फ एशिया में नहीं, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जैसी टीमों को टक्कर दे रही हैं।
हॉकी ने क्या बदला?
गाँव के बच्चे अब कहते हैं - “क्रिकेट नहीं, मैं हॉकी खेलूँगा।”
बेटियाँ कहती हैं - “मैं भी रानी रामपाल बनूँगी।”
और देश को याद आने लगा है वो गर्व, जो गोल्ड मेडल लाने पर मिलता है।
कहानी अभी खत्म नहीं हुई
भारत की हॉकी की कहानी एक फिल्म की तरह है - जिसमें उतार-चढ़ाव, ड्रामा, आँसू, तालियाँ और अंत में जीत होती है। अभी हम इंटरवल के बाद की कहानी में हैं - जहाँ वापसी शुरू हो चुकी है।कौन जानता है, अगला गोल्ड कब आएगा?
लेकिन एक बात तय है - ये खेल अब कभी अकेला नहीं रहेगा। देश अब फिर से हॉकी के साथ खड़ा है। जय हिन्द - जय भारत